जोधपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर सालावास गांव में स्थित है हिंगलाज माता मंदिर। पाकिस्तान में स्थित हिंगलाज माता मंदिर के बाद यह दूसरा मंदिर जोधपुर में है। मंदिर में माता की प्रतिमा के ऊपर लाखों टन वजनी शीला है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह अधर लटकी हुई है।
दो पहाड़ों के बीच में अटकी इस शिला के बारे में मानना है कि यह माता की एक उंगली पर टिकी हुई है। मंदिर के प्रति लोगों की गहरी आस्था है। कहा जाता है कि यहां पर जिसने भी इस शिला का राज जानने की कोशिश की उसकी मौत हो जाती है।
मंदिर में आस-पास के 15 से अधिक गांवों के लोग दर्शन के लिए आते हैं। मान्यता है कि यहां पर माता हर भक्त की मनोकामना पूरी करती है।
ग्रामीणों के अनुसार यहां पर शिला की जमीन से ऊंचाई के बारे में सुनकर दो लोगों को संदेह हुआ। चमत्कार की परीक्षा लेने के लिए वो धागे के साथ यहां पहुंचे थे। उन्होंने शिला के नीचे से धागा घुमाया। उनका संदेह दूर हो गया, लेकिन पहाड़ी से उतरते समय ही उनकी मौत हो गई। इनकी समाधि आज भी यहां मौजूद है। मंदिर में दर्शन के लिए आने वाले भक्त यहां नारियल चढ़ाते हैं।
यहां राजपुरोहित समाज के लोग भारत के किसी भी कोने में हों, वो यहां पर साल में एक बार दर्शन के लिए जरूर आते हैं।
मंदिर का इतिहास
आज से करीब 832 ईस्वी में जब यह मंडोर रियासत का इलाका था, यहां पडिहार प्रतिहारों का शासन था। उस समय राजपुरोहित दूदो जी कुटुंब सहित आए और जोजरी नदी के पास वर्तमान सालावास और घड़ाई नदी के पास दूदाखेड़ा नाम से गांव बसाया। मंडोर राज्य में प्रतिहरों के राज गुरु डावियाल राजपुरोहित थे। उन्हें सालावास गांव की जागीर प्राप्त थी।
हिंगलाज माता ने दुदो जी के वंशज सेलो जी राजपुरोहित को सपने में आकर बताया कि आप मेरी पीठ के पीछे बसे हुए हो, आप मेरे सम्मुख आकर बसो, जिससे गांव का उद्धार होगा। इसके बाद 1392 ईस्वी में सेलो जी राजपुरोहित ने भाकरी पर स्थित मंदिर के आगे आकर बस गए, यही राजपुरोहितों का बास सालावास कहलाया।
ग्रामीण और गांव के पूर्व उप सरपंच बस्तीराम पटेल ने बताया- लगभग 650 सालों से उनके पूर्वज इस जगह पर रह रहे हैं। ये मंदिर एक हजार साल से भी पुराना है। यहां माता की प्रतिमा स्वतः प्रकट हुई थी। उस समय इस पहाड़ी पर कोई नहीं रहता था। यहां पर एक शिला है जो अधर में लटकी हुई है। यहां पर हर जाति, धर्म के लोग दर्शन के लिए आते हैं। मान्यता है कि यहां जो भी दर्शन के लिए आया खाली हाथ नहीं जाता।
पुजारी मूल भारती ने बताया- माता की मंदिर में प्रतिमा बहुत पुरानी है। यहां पहाड़ के ऊपर शिला अधर में लटकी हुई है। मंदिर जमीन से लगभग 150 फीट ऊपर ऊंचाई पर है। मंदिर में सुबह 6 बजे आरती होती है। नवरात्रि के समय यहां एक दिन 8 बार आरती होती है। पहली आरती सुबह 6 बजे से शुरू होती है। दिन की अंतिम आरती ब्रह्म मुहूर्त के समय 4 बजे होती है।
नवरात्रा में यहां 8 दिन माता के पर्दा रखा जाता है। जबकि अष्टमी को हवन के साथ माता को भोग लगाकर परदा हटाया जाता है। आस पास के गांवों से लोग घी और हवन सामग्री लेकर यहां आते हैं।पर्दा लगाने के पीछे गांव के लोगों का मानना है कि मां की प्रतिमा के आगे जवारे उगाए जाते हैं। इसके आधार पर तय होता है कि यहां पर आने वाला समय कैसा रहेगा। खेती किसानी में कैसी फसल होगी।
ग्रामवासी राकेश गहलोत ने बताया- पाकिस्तान के बाद दूसरा बड़ा मंदिर है। यहां माता का चमत्कार ही है कि इतनी वजनी शिला अधर में लटकी हुई है। इसे माता ने अपनी उंगली पर धारण किया है।