श्रीकृष्ण की सीख- निराश करने वाली बातों से मन अशांत हो जाता है और हम लक्ष्य से भटक जाते हैं
महाभारत में कौरव और पांडवों के बीच हुए युद्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और पांडवों के मामा शल्य कर्ण के सारथी बने थे। पांच पांडवों में युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन कुंती के पुत्र थे और नकुल-सहदेव माद्री के पुत्र थे। राजा शल्य माद्री के भाई थे। नकुल-सहदेव के सगे मामा थे, लेकिन युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन भी उन्हें मामा की कहते थे।
शल्य पांडवों को पसंद करते थे, लेकिन युद्ध में वे दुर्योधन की ओर थे। शल्य कर्ण के सेनापति बने तो श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा कि शल्य भले ही दुर्योधन की सेना में हैं, लेकिन हमें उनसे कम से कम एक मदद जरूर मांगनी चाहिए।
श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा कि आप राजा शल्य से कहिए कि जब आप कर्ण के सारथी बनेंगे तब आपको कर्ण के सामने ऐसी बातें कहनी हैं, जिससे उसकी हिम्मत टूट जाए और वह निराश होने लगे।
श्रीकृष्ण की बात मानकर पांडवों ने शल्य से ये मदद मांगी। शल्य भी पांडवों की ये बात टाल नहीं पाए।
युद्ध में जब कर्ण और अर्जुन का आमना-सामना हुआ तो शल्य कर्ण की लगातार आलोचना करने लगे। शल्य की आलोचनात्मक बातें सुनकर कर्ण अशांत हो गया और चिड़चिड़ाने लगा, कर्ण को गुस्सा आ रहा था। मन अशांत हो गया तो वह अपने लक्ष्य से भटकने लगा। कर्ण अर्जुन की ओर बाण छोड़ते समय ठीक से निशाना नहीं लगा पा रहा था।
दूसरी ओर श्रीकृष्ण अर्जुन की तारीफ कर रहे थे, अर्जुन का मनोबल बड़ा रहे थे। इसी वजह से निराश कर्ण अर्जुन से हार गया।
श्रीकृष्ण की सीख
महाभारत में कर्ण भी अर्जुन के समान ही महान यौद्धा था, लेकिन उसकी संगत दुर्योधन के साथ थी। श्रीकृष्ण ने कर्ण का वध करने के लिए ये योजना बनाई थी, क्योंकि कर्ण के रहते पांडव महाभारत युद्ध जीत नहीं सकते थे। कर्ण के बाद ही पांडव यानी धर्म की जीत हुई। युद्ध में शल्य लगातार कर्ण की आलोचना कर रहे थे, इस कारण वह हताश हो गया और अर्जुन से ठीक से युद्ध नहीं कर सका।
जब हमारे सामने लगातार कोई हमारी आलोचना करता है तो हमारा मनोबल टूट जाता है। जब कोई हमारी आलोचना करे तो हमें उन बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, हमें सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान देना चाहिए, तभी सफलता मिल सकती है। ध्यान भटकेगा तो लक्ष्य हमसे दूर हो जाएगा और हम असफल हो जाएंगे।