उदयपुर। हिंदी विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी मंगलवार को संपन्न हुई | लोक साहित्य एवं संस्कृति : चिंतन और चुनौतियां विषय पर आयोजित इस संगोष्ठी में लोकनाट्य, लोकगीत, लोककला आदि के प्रादेशिक वशिष्ट्य, लोक संस्कृति और साहित्य के बदलते परिदृश्य पर विस्तृत रूप से चर्चा की गई |
संगोष्ठी के समापन सत्र में प्रो. शैलेंद्र शर्मा विभागाध्यक्ष, हिंदी अध्ययनशाला एवं कुलानुशासन विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ने शिरकत की, इन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि जब तक सभ्यता और संस्कृति जीवित रहेगी जब तक लोक संस्कृति भी जीवित रहेगी | हमारे वेद, पुराण सबसे पहले लोक में है उसके बाद श्लोक में है| आगे उन्होंने बताया कि हमनें लोकजीवि जातियों को उनके मूल स्वरूप से दूर कर दिया है जैसे लोकगीत गाने वाले आज बैण्ड में शामिल हो रहे हैं | हमें लोकविविधता के सरंक्षण की बात करनी होगी, तभी लोकसंस्कृति जीवित रह सकती हूँ|
मुख्य वक्ता प्रो. महिपाल सिंह ने अपने उद्बोधन में कहा प्रो. महिपाल सिंह जी- लोक का साहित्य स्त्रियों के संघर्ष, किसानों के संघर्ष इत्यादि का वास्तविक साहित्य है| हिंदी साहित्य की सम्पूर्ण इतिहास में लोक संस्कृति, लोक भाषा के शब्द समाहित है| विशिष्ट अतिथि पूनम भू जी ने कहा कि नयी पीढ़ी को अपने संस्कारों को बचाना होगा, उन्हें अपनी जड़ो से जोड़ना होगा। विशिष्ट अतिथि कृष्णा जुगनू ने अपने उद्बोधन में कहा कि शास्त्र लोक के प्रतिष्ठापक है | ऐसा कोई शास्त्र नहीं है जिसमें लोक शामिल नहीं है| भगवान भी लोक नाथ हैं, लोक स्वामी हैं, वो भी लोक से अलग कुछ भी नहीं हैं| अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. मदन सिंह राठौड़ ने कहा बिना लोक के समाज शून्य है| लोक मानवता व प्रकृति को समर्पित है| लोक जो लेता है; उससे कहीं ज्यादा वापिस भी लौटाता है| केवल संगोष्ठियों से लोक नहीं बच सकता; जब तक लोक व्यवहार में नहीं लाया जायेगा, लोक का संरक्षण सम्भव नहीं है | धन्यवाद ज्ञापन संगोष्ठी की संयोजक डॉ.नीतू परिहार ने दिया|
द्वितीय तकनीकी सत्र में वक्ता : डॉ. राजेंद्र सिंघवी – लोक गाथाओं पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि महाकाव्य और उसमें उद्धात भावो व सभी रसों की अभिव्यक्ति बताइ। सिंघवी जी ने तेजाजी, बगड़ावत, डुंगजी, जवाहर जी आदि लोक गाथाओं की संक्षिप्त अभिव्यक्ति दी और अंत में कहा कि विज्ञान की सभ्यता कभी नहीं टूटेगी यदि लोग आपके साथ है।
वक्ता डॉ. नवीन नंदवाना – हम मंत्र से यंत्र के युग में आ गए। लोक लोक का मंगल चाहता है। लोक लोक का मंगल चाहता है। आदिवासी की अपनी संस्कृति है – पावणा प्रथा, नोतरा प्रथा
अध्यक्षीय उद्बोधन : प्रो. मलय पानेरी -लोक बचाना ही एक सबसे बड़ी चुनौती है। हमें अपनी सारी सुविधाओं को दरकिनार करते हुए लोक को बचाने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा। लोक का नाता केवल कंठ और कान से रहा है इसकी मूल ध्वनि और मूल कसौटी मौखिक परंपरा है लोगों से ही लोक बनता है और लोग नहीं होंगे तो लोक कैसे बनेगा। लोक साहित्य यदि लिपि बद्ध होता है तो वह उस साहित्य का अपकार है। लोक में व्यक्ति को अनुभव से जोड़ता है। संचालन : डॉ.तरुण दाधीच ने किया। धन्यवाद : डॉ. आशीष सीसोदिया ने दिया।
तृतीय तकनीकी सत्र लोकनाट्य, लोकगीत, लोककला: प्रादेशिक वैशिष्ट्य पर था। अध्यक्षता : प्रो. नीरज शर्मा ने की वक्ता : डॉ. आशीष सिसोदिया, डॉ. प्रीति भट्ट, डॉ. डोली मोगरा थे। पत्रवाचन : प्रवीण जी जोशी लोक प्रथाओं को प्रकृति से जोड़ा। प्रवीण ने अपने शोध पत्र में मेवाड़ के विभिन्न लोकगीतों का उल्लेख किया। वक्ता डॉ. डोली मोगरा ने अपने वक्तव्य में बताया कि लोक प्रचलित परिधानों के महत्व एवं औचित्य पर प्रकाश डालते हुए बताया कि लोक में शोक के समय अलग, होली के अवसर पर अलग इसी प्रकार प्रत्येक प्रथा पर अलग प्रकार की वेषभूषा का प्रयोग किया जाता है जो लोक को प्रदर्शित करती है।
वक्ता – डॉ. प्रीति भट्ट – मुँ और म्हारा दाता दुजो आवे तो खावे लाता। लोक में ऐसी कहावते है जो हमें व्यवहारिक शिक्षा प्रदान करती हैं। वक्ता : डॉ. आशीष सिसोदिया – लोक गीतों में मनोरंजन पर विचार रखते हुए लोकगीतों के उदाहरण सभागार में प्रस्तुत किये। अध्यक्ष : प्रो. नीरज शर्मा ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में बताया कि लोक के ज्ञान के बिना कविता पूर्ण नहीं हो सकती है। जिस प्रकार समुद्र और बादल का संबंध है ठीक उसी प्रकार लोक और शास्त्र का है भी संबंध है। जहां सरलता हो, जीवंतत हो, वहाँ लोक है। संचालन : डॉ. वीरमा राम पटेल ने किया। धन्यवाद : डॉ. नीतू त्रिवेदी जी ने किया। दोनों सत्रों में कुल 11 पत्रों का वाचन किया गया।